हृदय चुभें जब तीर व्यंग्य के..





हृदय चुभें जब तीर व्यंग्य के



परोपकार,दया ,प्रेम, सहानुभूति, क्षमा केवल सुपात्र को ही देनी चाहिए...कुपात्र को यदि ये उपहार मिलें तो इतिहास साक्षी है विनाश देने वाले का ही होता है..सहनशीलता की सीमा निर्धारित करना भी परम आवश्यक है अत्यधिक सहनशीलता कायरता का रूप ले लेती है...बस यही भाव इस गीत के माध्यम से आप सभी के समक्ष रख रही हूँ..


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हृदय चुभें जब तीर व्यंग्य के,
इक हुंकार जरूरी है।
रिसन करें जब फटी बिबाई,
इक उपचार जरूरी है।

दूध पूत का छीन बाँटते
फिर भी हम हिय के काले।
माँस नोंचकर अपने तन का
गिद्ध भेड़िये हैं पाले।।
दमन दर्प का करने हेतु
इक फुंकार जरूरी है।।….

बरसों दुबके रहे खोल में
अंतस पर पाले जाले।
पैबंदों की काया ओढे
नेत्र बंद मुख पर ताले।।
मौन नयन के द्वारे पहुँचा
अब ललकार जरूरी है।।...

वर्षा करते रहे प्रेम की
सदा जोंक के साथ जिए।
बंजर धरणी रहे सींचते
प्रेमांकुर की आस लिए।
नागफनी जब अंतस चीरे
तब प्रतिकार जरूरी है।।...

मान कुटंबी सब सर्पों को
निज हिय में स्थान दिए।
भक्षक के रक्षण में हमने
अपनों पर ही वार किए।
चीख रहे जब हिय के छाले
इक टंकार जरूरी है।।...।


पूजा शर्मा "सुगन्ध"



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